आप तुलसी के पौधे के बीज को संभाल कर रक्खे ये बड़े काम की है ....!

जब भी तुलसी में खूब फुल यानी मंजिरी लग जाए तो उन्हें पकने पर तोड़ लेना चाहिए वरना तुलसी के झाड में चीटियाँ और कीड़ें लग जाते है और उसे समाप्त कर देते है . इन पकी हुई मंजिरियों को रख ले . इनमे से काले काले बीज अलग होंगे उसे एकत्र कर ले . यही सब्जा है . अगर आपके घर में नही है तो बाजार में पंसारी या आयुर्वैदिक दवाईयो की दुकान पर मिल जाएंगे ..

* तुलसी चटपटी, कड़वी अग्निदीपक, हृदय को हितकारी गरम, दाह, पित्त, वृद्धिकर, मूत्रकृच्छ, कोढ़, रक्तविकार, पसली-पीड़ा तथा कफ वातनाशक है। पाश्चात्य मतानुसार श्वेत तुलसी उष्ण, पाचक एवं बालकों के प्रतिश्याय कफ रोग में कार्यान्वित होता है। काली तुलसी शीत, स्निग्ध, कफ एवं ज्वरनाशक है। फुसफुस के अन्दर से कफ निकालने के लिए काली मिर्च के साथ तुलसी के पत्तों का प्रयोग किया जाता है। तुलसी रोगाणुनाशक पौधा है। प्राय: सभी हिन्दू घरों में यह मिलता है और इसकी पूजा होती है।
* केवल क्षय और मलेरिया के कीटाणु ही तुलसी की गंध से समाप्त नहीं हो जाते, अन्य रोगों के कीटाणु भी नष्ट हो जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व मलाया में मलेरिया की अधिकता को देखकर वहां की सरकार ने पार्कों में वनों में खाली जमीन जहां भी थी वहां तुलसी के पौधे रोपने का एक जोरदार अभियान चलाया था। उसके परिणामस्वरूप महामारी के रूप में कुख्यात मलेरिया धीरे-धीरे कम होते हुए अब बिलकुल समाप्त हो गया है। वहां के निवासी तुलसी के गुणों से भली-भांति परिचित हो चुके हैं। आज उनके घरों में तुलसी के एक-दो नहीं कई-कई पौधे लहलहाते दिखाई देते हैं।
* अनेक होमियोपैथिक दवाइयां तुलसी के रस से तैयार की जाती हैं। मेटेरिया मेडिका में तुलसी के अनेक गुणों का उल्लेख किया गया है।
* हमारे दैनिक जीवन में तुलसी का बहुत ही व्यापक उपयोग है। घर में हम अन्य फूलदार पौधे गमलों में लगाते हैं क्योंकि हर घर में कच्ची जमीन नहीं होती। हमें गमलों में तुलसी के भी दो-चार पौधे लगाने चाहिए। हालांकि जमीन में तुलसी का पौधा जिस तेजी से पनपता और विकसित होता है गमले में नहीं हो पाता। लेकिन इससे उसके गुणों में कोई अन्तर नहीं आता।
* तुलसी का सेवन करते समय कुछ बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। तुलसी का उपयोग करने के तत्काल बाद दूध नहीं पीना चाहिए। उससे कई रोग पैदा हो जाते हैं। अनेक आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन दूध के साथ बताया गया है लेकिन तुलसी का सेवन गंगाजल, शहद या फिर सामान्य पानी के साथ बताया गया है।
आयुर्वेद के मतानुसार, यदि कार्तिक मास में प्रातःकाल निराहार तुलसी के कुछ पत्तों का सेवन किया जाए तो मनुष्य वर्ष भर रोगों से सुरक्षित रहता है।
* तुलसी के सेवन का मनुष्य के चरित्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। तुलसी के सेवन से विचार शुद्ध और पवित्र रहते हैं। आध्यात्मिक विचार उत्पन्न होते हैं। वासना की ओर मन आकृष्ट नहीं हो पाता। मन में तो वासनात्मक विचार उत्पन्न होते हैं क्रोध आता है। तुलसी के नियमित सेवन से शरीर में चुस्ती-फुर्ती पैदा होती है। चेहरा कान्तिपूर्ण बन जाता है।
तुलसी रक्त विकार का सबसे बड़ा शत्रु है। रक्त में किसी भी कारण से विकार उत्पन्न हो गए हों, धोखे या जानबूझकर खा लेने पर विष रक्त में घुलमिल गया हो, तुलसी के नियमित प्रयोग से वह विष रक्त से निकल जाता है।
तुलसी के पौधे आंखों की ज्योति और मन को शान्ति प्रदान करते हैं। वातावरण में सात्विकता की सृष्टि करते हैं। तुलसी हृदय को सात्विक बनाती है। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहने की प्रेरणा के लिए तुलसी प्रयोग की जाती है।
जीवन की सफलता मन की एकाग्रता पर बहुत कुछ निर्भर करती है। यदि मन एकाग्र हो तो मनुष्य तो भजन, पूजन, आराधना और चिन्तन-मनन कर सकता है ही अध्ययन कर सकता है।
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भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) का सबसे प्राचीन और मान्य ग्रंथ चरक संहिता में तुलसी के गुणों का वर्णन करते हुए कहा गया है-
हिक्काल विषश्वास पार्श्व शूल विनाशिनः।
पितकृतात्कफवातघ्र सुरसः पूर्ति गंधहा।।
अर्थात् तुलसी हिचकी, खांसी, विष विकार, पसली के दाह को मिटाने वाली होती है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित कफ तथा वायु का शमन होता है। भाव प्रकाश में तुलसी को रोगनाशक, हृदयोष्णा, दाहिपितकृत शक्तियों के सम्बन्ध में लिखा है।
तुलसी कटुका तिक्ता हृदयोष्णा दाहिपितकृत।
दीपना कष्टकृच्छ् स्त्रार्श्व रुककफवातेजित।।
अर्थात् तुलसी कटु, तिक्त, हृदय के लिए हितकर, त्वचा के रोगों में लाभदायक, पाचन शक्ति को बढ़ाने वाली मूत्रकृच्छ के कष्ट को मिटाने वाली होती है। यह कफ और वात सम्बन्धी विकारों को ठीक करती है।
धन्वंतरि निघुंट में कहा गया है-
तुलसी लघु उष्णाच्य रूक्ष कफ विनाशिनी।
क्रिमिमदोषं निहंत्यैषा रुचि वृद्वंहिदीपनी।।
तुलसी, हल्की, उष्ण रूक्ष, कफ दोषों और कृमि दोषों को मिटाने वाली अग्नि दीपक होती है।
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सामान्यतः तुलसी के दो ही भेद जाने जाते हैं जिन्हें रामा और श्यामा कहते हैं। रामा के पत्तों का रंग हलका होता है जिससे उसका नाम गौरी पड़ गया है। श्यामा अथवा कृष्णा तुलसी के पत्तों का रंग गहरा होता है और उसमें कफनाशक गुण अधिक होता है। इसलिए औषधि के रूप में प्रायः कृष्णा तुलसी का ही प्रयोग किया जाता है। इसकी गंध रस में तीक्ष्णता होती है। तुलसी की अन्य कई प्रजातियाँ होती हैं। एक प्रजातिवन तुलसीहै जिसेकठेरकभी कहते हैं। इसकी गंध घरेलू तुलसी की अपेक्षा कम होती है और इसमें विष का प्रभाव नष्ट करने की क्षमता होती है। रक्त दोष, नेत्रविकार, प्रसवकालीन रोगों की चिकित्सा में यह विशेष उपयोगी होती है। दूसरी जाति कोमरुवककहते हैं। राजा मार्तण्ड ग्रन्थ में इसके लाभों की जानकारी देते हुए लिखा गया है कि हथियार से कट जाने या रगड़ लगकर घाव हो जाने पर इसका रस लाभकारी होता है। किसी विषैले जीव के डंक मार देने पर भी इसका रस लाभकारी होता है। तीसरी जाति बर्बरी या बुबई तुलसी की होती है, इसकी मंजरी की गंध अधिक तेज होती है। इसके बीज अत्यधिक वाजीकरण माने गए हैं।

* अनेक हकीमी नुस्खों में इनका प्रयोग होता है। वीर्य की वृद्धि करने पतलापन दूर करने के लिए बर्बरी जाति की तुलसी के बीजों का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा तुलसी की एक कृमिनाशक जाति भी होती है।
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